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SHRI NIMBARKA SAMPRADAYA

SHRI NIMBARKA SAMPRADAYA is one of the most ancient of the VAISHNAVA SAMPRADAYS and is based on the DWAITADWAIT philosophy first PROPOUNDED BY HANS BHAGWAN to SHRI SANKADI BHAGWAN then TO SHRI NARADA MUNI and then on to SHRI SUDARSHANA, CHAKRAVATAR, JAGAT GURU SHRI NIMBARKACHARYA. The basic tenet consists of the worship of SHRI RADHA MADHAV with  SHRI RADHE being personified as the inseparable part of SHRI KRISHNA. The unbroken line of the SAMPRADAYA beginning from BHAGWAN SHRI NIMBARKACHARYA has now continued for more than five thousand years tilldate. Presently the head of the SAMPRADAYA is his holiness  Jagadguru Nimbarkacharya Shri Shriji Maharaj Brindavan, Nandgram, Barsana and Govardhan   are the chief Kshetras or holy lands of the followers of Nimbarkacharya.  Parikrama of the 168 miles of Brij Bhumi is their foremost duty. 16 WORD MAHA MANTRA Radhe Krishna Radhe Krishna, Krishna Krishna Radhe Radhe| Radhe Shyam Radhe Shyam, Shyam Shyam Radhe Radhe||

AKHIL BHARATIYA NIMBARKACHARYA PEETH

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      AKHIL BHARATIYA NIMBARKACHARYA PEETH 16 WORD MAHA MANTRA     RADHE KRISHNA RADHE KRISHNA  KRISHNA KRISHNA RADHE RADHE           RADHE SHYAM RADHE SHYAM SYAM SHYAM RADHE RADHE   SRI NIMBARKA SAMPRADAYA IS ONE OF THE MOST ANCIENT OF THE VAISHNAVA SAMPRADAYS; AND IS BASED ON THE DWAITADWAIT PHILOSOPHY FIRST PROPOUNDED BY HANS BHAGWAN TO SRI SANKADI BHAGWAN THEN TO SRI NARADA MUNI AND THEN ON TO SRI SUDARSHANA; CHAKRAVATAR; JAGAT GURU SRI NIMBARKACHARYA. THE BASIC TENET CONSISTS OF THE WORSHIP OF SRI RADHA MADHAV , WITH SRI RADHE BEING PERSONIFIED AS THE INSEPERABLE PART OF SRI KRISHNA. THE UNBROKEN LINE OF THE SAMPRADAYA BEGINNING FROM BHAGWAN SHRI  NIMBARKACHARYA HAS NOW CONTINUED FOR MORE THAN FIVE THOUSAND YEARS; AND EXTOLS THE FOURTH SAMPRADAYA OF VAISHNAVISM WHICH PROPOUNDS THE DVAITA-ADVAIT; i.e THE BHEDABHED SCHOOL OF PHILOSOPHY . AS PER SRIMAD BHAGAVATHAM TRUE KNOWLEDGE WAS COMMUNICATED TO THE SANAKADI RISHIS BY BHAGWAN IN THE FORM OF A SWAN (HANS) -(REF:BOOK XI C

द्वैताद्वैत वेदान्त

द्वैताद्वैत वेदान्त निंबार्क  (11 वीं शताब्दी) का दर्शन रामानुज से अत्यधिक प्रभावित है। जीव ज्ञान स्वरूप तथा ज्ञान का आधार है। जीव और ज्ञान में धर्मी-धर्म-भाव-संबध अथवा भेदाभेद संबंध माना गया है। यही ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। ईश्वर जीव का नियंता, भर्ता और साक्षी है। भक्ति से ज्ञान का उदय होने पर संसार के दु:ख से मुक्त जीव ईश्वर का सामीप्य प्राप्त करता है। अप्राकृत भूत से ईश्वर का शरीर तथा प्राकृत भूत से जगत्‌ का निर्माण हुआ है। काल तीसरा भूत माना गया है। ईश्वर को कृष्ण राधा के रूप में माना गया है। जीव और भूत इसी के अंग हैं। यही उपादान और निमित कारण है। जीव-जगत्‌ तथा ईश्वर में भेद भी है अभेद भी है। यदि जीव-जगत्‌ तथा ईश्वर एक होते तो ईश्वर को भी जीव की तरह कष्ट भोगना पड़ता। यदि भिन्न होते तो ईश्वर सर्वव्यापी सर्वांतरात्मा कैसे कहलाता?

निम्बार्काचार्य

निम्बार्काचार्य निम्बार्काचार्य   भारत  के प्रसिद्ध दार्शनिक थे जिन्होने  द्वैताद्वैत  का दर्शन प्रतिपादित किया। उनका समय १३वीं शताब्दी माना जाता है। किन्तु निम्बार्क सम्प्रदाय का मानना है कि निम्बार्क का प्रादुर्भाव ३०९६ ईसापूर्व (आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व) हुआ था। निम्बार्क का जन्मसथान वर्तमान  आंध्र प्रदेश  में है। परिचय सनातन संस्कृति की आत्मा  श्रीकृष्ण  को उपास्य के रूप में स्थापित करने वाले निंबार्काचार्य वैष्णवाचार्यों में प्राचीनतम माने जाते हैं। राधा-कृष्ण की युगलोपासना को प्रतिष्ठापित करने वाले निंबार्काचार्य का प्रादुर्भाव  कार्तिक   पूर्णिमा  को हुआ था। भक्तों की मान्यतानुसार आचार्य निंबार्क का आविर्भाव-काल द्वापरांत में कृष्ण के प्रपौत्र  बज्रनाभ  और परीक्षित पुत्र  जनमेजय  के समकालीन बताया जाता है। इनके पिता अरुण ऋषि की, श्रीमद्‌भागवत में परीक्षित की भागवतकथा श्रवण के प्रसंग सहित अनेक स्थानों पर उपस्थिति को विशेष रूप से बतलाया गया है। हालांकि आधुनिक शोधकर्ता निंबार्क के काल को विक्रम की 5वीं सदी से 12वीं सदी के बीच सिद्ध करते हैं। संप्रदाय की मान्यतानु

Nimbark sampradaya in hindi

'निम्बार्क' का अर्थ है- नीम पर सूर्य।  मथुरा  में स्थित ध्रुव टीले पर  निम्बार्क संप्रदाय  का प्राचीन मन्दिर बताया जाता है। इस संप्रदाय के संस्थापक भास्कराचार्य एक संन्यासी थे। इस संप्रदाय का सिद्धान्त ' द्वैताद्वैतवाद ' कहलाता है। इसी को 'भेदाभेदवाद' भी कहा जाता है। भेदाभेद सिद्धान्त के आचार्यों में औधुलोमि, आश्मरथ्य, भतृ प्रपंच, भास्कर और यादव के नाम आते हैं। इस प्राचीन सिद्धान्त को 'द्वैताद्वैत' के नाम से पुन: स्थापित करने का श्रेय  निम्बार्काचार्य  को जाता है। उन्होंने 'वेदान्त पारिजात-सौरभ', वेदान्त-कामधेनु, रहस्य षोडसी, प्रपन्न कल्पवल्ली और कृष्ण स्तोत्र नामक ग्रंथों की रचना भी की थी। वेदान्त पारिजात सौरभ  ब्रह्मसूत्र  पर निम्बार्काचार्य द्वारा लिखी गई टीका है। इसमें वेदान्त सूत्रों की सक्षिप्त व्याख्या द्वारा द्वैताद्वैतव सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।

Our Nimbark Sampradaya

Nimbarka Sampradaya The  Nimbarka Sampradaya,  also known as the  Hamsa Sampradāya ,  Kumāra Sampradāya , Catuḥ Sana Sampradāya  and  Sanakādi Sampradāya , is one of the four authorised  Vaiṣṇava   Sampradāyas . The Origins -  Śrī Hansa Bhagavān Śrī Nimbārka Sampradāya traditionally traces it origin to the four Kumaras, and aims the worship of  Śrī Kṛṣṇa The Four Kumāras The  Four Kumaras  namely: Sanaka, Sanandana, Sanātana, and Sanat Kumāra are traditionally the four mind-born sons of Lord Brahmā. They are renowned  yogis , who requested their father the boon of remaining perpetually five years old. They were created by their father in order to advance creation, however, they chose to undertake lifelong vows of celibacy ( brahmacarya ). [1] Śrī Sanat Kumāra Samhitā is a famous treatise on the worship of  Śrī Rādhā Kṛṣṇa  authored by the brothers, and they have also produced the Śrī Sanat Kumāra Tantra, part of  Pancarātra  literature. [2]  It is due to the tradition comi